Tuesday 18 October 2016

*प्रेमरस* *"कहै प्रेम की बरनि कहानी। जो बूझै सो सिद्ध गियानी।।"* प्रेमी होना चाहे कुछ आसान भी हो, परन्तु प्रेम का अधिकारी होना तो एकदम मुश्किल है। बड़ी टेढ़ी खीर है। सिंहनी का दूध दुह लेना चाहे कुछ सुगम भी हो, पर प्रेम का अधिकार प्राप्त कर लेना तो महान कठिन है। हमारी मनोव्यथा सुनने समझने का अधिकारी तो वही हो सकता है जिसे अपना शरीर दे दिया है, मन सौंप दिया है और जिसके ह्रदय को अपने निवास स्थान बना लिया है अथवा जिसे अपने दिल में बसा लिया है उससे अपना क्या भेद छिपा रह सकता है। ऐसे प्रेमी को अपनी रामकहानी सुनाते सचमुच बड़ा आनंद आता है, क्योंकि वही उसके सुनने समझने का सच्चा अधिकारी है। ज्ञानी अथवा सिद्ध प्रेमाधिकारी नहीं हो सकता, किन्तु प्रेमाधिकारी निःसंदेह ज्ञानी और सिद्ध की अवस्था को अनायास पहुँच जाता है। जो प्रेम की कहानी सुन और समझ सकता है, वही तो ज्ञानी और सिद्ध है। *"जेहि रहीम तन मन दियौ, कियौ हिय बिच भौन।* *तासों सुख दुःख कहन की रही बात अब कौन।।"*

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