Friday 12 August 2016

इतिहास की जानकारी आपको भेजी गयी है,आप इसे वक़्त निकाल पढ़ने की कोशिश करेंगे, शुक्रिया-सैयद सलीमुद्दीन शाह। Aug 12, 2016 स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लमान क्रांतकारियो का इतिहास जिन्हे भुला दिया गया के स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लमान क्रांतकारियो का इतिहास जिन्हे भुला दिया गया ! जब बात भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की होती है तो सिर्फ एक ही नाम जो मुस्लिम कटआउट की तरह जहाँ देखो वहीं दिखाई देता है..? और वो नाम है “मौलाना अबुल कलाम आज़ाद” जिसे देखकर हमने भी यही समझ लिया कि मुसलमानो में सिर्फ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ही एक थे जिन्होने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन मे हिस्सा लिया था |जबके 1498 की शुरुआत से लेकर 1947 तक मसलमानो ने विदेशी आक्रमनकारीयों से जंग लड़ते हुए अपना सब कुछ क़ुरबान कर दिया … इतिहास के पन्नों में अनगिनत ऐसी हस्तियों के नाम दबे पड़े हैं जिन्हो ने भारतीय स्वतंत्रा आंदोलन में अपने जीवन का बहुमूल्य योगदान दिया जिनका ज़िक्र भूले से भी हमें सुनने को नहीं मिलता ? जबकि अंग्रेजों के खिलाफ भारत के संघर्ष में मुस्लिम क्रांतिकारियों, कवियों और लेखकों का योगदान प्रलेखित है| 1772 मे शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० ने अंगरेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा दे दिया ( हमारे देश का इतिहास 1857 की मंगल पांडे की KIRANTI को आज़ादी की पहली KIRANTI मानता है जबके शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० 85 साल पहले आज़ादी की KRINTI की लो हिन्दुस्तानीयो के दिलों मे जला चुके थे इस जेहाद के फतवे के ज़रिए ) इस जेहाद के ज़रिए उन्होंने कहा के अंगरेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो और ये मुसलमानो पर फर्ज़ हो चुका था । 1772 के इस फतवे के बाद जितनी भी तहरीके चली वो दरासल इस फतवे का नतीजा थी * वहाबी तहरीक * तहरीके रेशमी रूमाल * जंगे आज़ादी * तहरीके तर्के मुवालात * और तहरीके बाला कोट या इस तरह की जितनी भी कोशिशें थी वो सब के सब शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० के फतवे का नतीजा थी मुसलमानों के अन्दर एक शऊर पैदा होना शुरू हो गया के अंगरेज़ लोग फकत अपनी तिजारत ही नहीं चमकाना चाहते बल्के अपनी तहज़ीब को भी यहां पर ठूसना चाहते है इस शऊर को पैदा होने के बाद दूसरे उलमा इकराम ने भी इस हकीकत को महसूस किया के हमे अंगरेज़ो से निजात पाना ज़रुरी है ॥ पर कुछ जंग शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० के फतवे से पहले भी लड़ी गई थी 1 Kunhali Marakkar 1498 की शुरुआत से यूरोपीय देशों की नौसेना का उदय और व्यापार शक्ति को देखा गया क्योंकि वे भारतीय उपमहाद्वीप पर तेजी से नौसेना शक्ति में वृद्धि और विस्तार करने में रूचि ले रहे थे। ब्रिटेन और यूरोप में औद्योगिक क्रांति के आगमन के बाद यूरोपीय शक्तियों ने मुगल साम्राज्य का पतन करने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकीय और वाणिज्यिक लाभ प्राप्त किया था। उन्होंने धीरे-धीरे इस उपमहाद्वीप पर अपने प्रभाव में वृद्धि करना शुरू किया. पुर्तगालियों के खिलाफ लड़ा हुआ किसी भारतीय का पहला हथयार बन्द आंदोलन था , कुन्हाली मरक्कर का ख़िताब उन मुस्लिम नाविक योद्धाओं के नाम पर है जिन्होंने अपने हिन्दू राजा Zamorin (Samoothiri) के लिए पुर्तगालियो के खिलाफ कालीकट केरला में दशकों तक विद्रोह किया था , ये युद्ध 1502 से 1600 ई तक चला ! 2 Battle of Plassey प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में २२ मील दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक स्थान में हुआ था। इस युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी तो दूसरी ओर थी बंगाल के नवाब की सेना। कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नबाव सिराज़ुद्दौला को हरा दिया था। किंतु इस युद्ध को कम्पनी की जीत नही मान सकते कयोंकि युद्ध से पूर्व ही नवाब के तीन सेनानायक, उसके दरबारी, तथा राज्य के अमीर सेठ जगत सेठ आदि से कलाइव ने षडंयत्र कर लिया था। नवाब की तो पूरी सेना ने युद्ध मे भाग भी नही लिया था युद्ध के फ़ौरन बाद मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है। 3 Battle of Seringapatam हैदर अली, और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी के प्रारम्भिक खतरे को समझा और उसका विरोध किया। टीपू सुल्तान भारत के इतिहास में एक ऐसा योद्धा भी था जिसकी दिमागी सूझबूझ और बहादुरी ने कई बार अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. अपनी वीरता के कारण ही वह ‘शेर-ए-मैसूर’ कहलाए.इस पराक्रमी योद्धा का नाम टीपू सुल्तान था. गीदड़ की सौ साल की ज़िन्दगी से बेहतर है शेर की एक दिन की ज़िन्दगी :- टीपू सुल्तान अंग्रेजों से लोहा लेने वाले में बादशाह टीपू सुल्तान ने ही देश में बाहरी हमलावर अंग्रेजो के ज़ुल्म और सितम के खिलाफ बिगुल बजाय था और जान की बजी लगा दी मगर अंग्रेजों से समझौता नहीं किया! टीपू अपनी आखिरी साँस तक अंग्रेजो से लड़ते लड़ते शहीद हो गए। उनकी तलवार अंगरेज़ अपने साथ ब्रिटेन ले गए। टीपू की मृत्यू के बाद सारा राज्य अंग्रेज़ों के हाथ आ गया। टीपू की बहादुरी को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें विश्व का सबसे पहला राकेट आविष्कारक बताया था. बहरहाल, 1799 में टीपू सुल्तान अंततः श्रीरंगापटनम में पराजित हुए। 4 मई 1799 को 48 वर्ष की आयु में कर्नाटक के श्रीरंगपट्टना में टीपू को धोके से अंग्रेजों द्वारा क़त्ल किया गया। वेल्लोर की क्रांति ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ़ भारतीय सिपाही आंदोलन का सबसे पहला उदाहरण है। यह आंदोलन 1857 के सिपाही आंदोलन से पहले ही निश्चित किया जा चुका था। यह विद्रोह दक्षिण भारत के वेल्लोर नामक कस्बे में शुरूहुआ था। यह आंदोलन बहुत बड़ा नहीं था लेकिन बहुत भयानक था। इस क्रांति के दौरान क्रांतिकारी वेल्लोर के दुर्ग में घुस गये और उन्होंने ब्रिटिश टुकडियों के सैनिकों को मार ड़ाला व कुछ को घायल कर दिया। इस क्रांति के पीछे मुख्य कारण यह था कि नवम्बर 1805 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सैनिकों की वर्दी में काफ़ी परिवर्तन कर दिये थे जिनको सैनिकों ने पसन्द नहीं किया और उनकी ये नापसंदगी विद्रोह में बदल गई। सरकार ने हिन्दू सैनिकों को उनके धार्मिक चिन्ह जो वे अपने मस्तक पर लगाते थे लगाने की अनुमति नहीं दी और मुस्लमानों को दाढ़ी व मूँछ हटाने के लिये बाध्य किया गया। इस बात नेसिपाहियों के दिलों में विद्रोह उत्पन्न किया और जब सैनिकों ने सरकार के खिलाफ़ अपना विद्रोह प्रदर्शित किया तोमई 1806 में कुछ विद्रोही सैनिकों को इसके लिये दंडित किया गया। एक हिन्दू और एक मुस्लिम सिपाही को इस अपराध के लिये 900 कोड़े मारे गये, 19 अन्य सिपाहियों को 500 कोड़े मारे गए और इन सब सैनिकों को ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से क्षमा मांगने के लिये बाध्य किया गया। दूसरी तरफ़ यह आंदोलन 1799 से बंदी बनाये गये टीपू सुल्तान के बेटों को मुक्त करवाने के लिये भी किया गया था। 9 जुलाई 1806 कोटीपू सुल्तान की एक बेटी का विवाह था। इस दिन क्रांति के आयोजन कर्ता में विवाह में शामिल होने के बहाने से उस दुर्ग में एकत्रित हुए। 10 जुलाई कीे आधी रात को सिपाहियों ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और अधिकांंश ब्रिटिश लोगों को मार डाला। सुबह होते ही दुर्ग के ऊपर मैसूर के सुल्तान का झंडा फ़हराया गया। इस घटना में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों ने टीपू सुल्तान के दूसरे पुत्र फ़तेह हैदर को राजा घोषित कर दिया। लेकिन एक ब्रिटिश अधिकारी वहाँ से भाग गया और उसने नजदीक ही अर्कोट में स्थित ब्रिटिश सेना को इस घटना से अवगत करवा दिया। 9 घंटे बाद हीब्रिटिश अधिकारी सर रोलो गिलेस्पी अपनी घुडसवार सेना के साथ उस दुर्ग में पहुँचा, क्योंकि दुर्ग पर सिपाहियों द्वारा ठीक से सुरक्षा के लिये पहरा नहीं दिया जा रहा था। वहाँ ब्रिटिश सेना व क्रांतिकारियों के बीच भयानक लड़ाई हुई जिसमें लगभग 350 आंदोलन कारी मारे गये व दूसरे 350 घायल हो गये। दूसरे तथ्यों के अनुसार उस लड़ाई में 800 आंदोलनकारी मारे गये थे। इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार ने बंदी किये गये शासकों को कलकत्ता भेज दिया। मद्रास के ब्रिटिश ग़र्वनर विलियम बैंटिक ने भारतीय सिपाहियों के सामाजिक व धार्मिक रिवाजों के साथ जो निरोधात्मक नियम ब्रिटिश सरकार ने लगाये थे उनको बंद कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने सिपाही विद्रोह की इस घटना से अच्छा सबक सीख लिया, इसीलिये 1857 की क्रांति के समय सिपाहियों का सामान्य गुस्सा समाप्त हो रहा था। यह बात भी रोचक है कि वेल्लोर के आंदोलनकारियों ने टीपू सुल्तान के पुत्रों को फ़िर से सत्ता में लाने की योजना बनाई जैसा 1857 की क्रांति ने भारत के सम्राट बहादुर शाह को फ़िर से सत्ता में लाकर मुगल साम्राज्य को एक बार फ़िर से स्थापित करना चाहा था। 4 Bahadur shah zafar 1857 movement बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे औरउर्दू भाषा के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई। 1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह औरभारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रुप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रितानी ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला। पहली जंगे आजादी के महान स्वतंत्र सेनानी अल्लामा फजले हक खैराबादी ने दिल्ली की जामा मस्जिद से सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ जेहाद का फतवा दिया था ! इस फतवे के बाद आपने बहादुर शाह ज़फर के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला और अज़ीम जंगे आजादी लड़ी ! अँगरेज़ इतिहासकार लिखते हैं की इसके बाद हजारों उलेमाए किराम को फांसी ,सैकड़ों को तोप से उड़ा कर शहीद कर दिया गया था और बहुतसों को काला पानी की सजा दी गयी थी! अल्लामा फजले हक खैराबादी को रंगून में काला पानी में शहादत हासिल हुई ! यह स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध था जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने 1857 का सिपाही विद्रोह कहा। सिपाही विद्रोह के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा ज्यादातर ऊपरी वर्ग के मुस्लिम लक्षित थे क्योंकि वहां और दिल्ली के आसपास इन्हें के नेतृत्व में युद्ध किया गया था। हजारों की संख्या में मित्रों और सगे संबंधियों को दिल्ली के लाल किले पर गोली मार दी गई या फांसी पर लटका दिया गया जिसे वर्तमान में खूनी दरवाजा (ब्लडी गेट) कहा जाता है। प्रसिद्ध उर्दू कवि मिर्जा गालिब (1797-1869) ने अपने पत्रों में इस प्रकार के ज्वलंत नरसंहार से संबंधित कई विवरण दिए हैं जिसे वर्तमान में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस द्वारा ‘गालिब हिज लाइफ एंड लेटर्स’ के नाम के प्रकाशित किया है और राल्फ रसेल और खुर्शिदुल इस्लाम द्वारा संकलित और अनुवाद किया गया है (1994). जैसे-जैसे मुगल साम्राज्य समाप्त होने लगा वैसे-वैसे मुसलमानों की सत्ता भी समाप्त होने लगी, और भारत के मुसलमानों को एक नई चुनौती का सामना करना पड़ा – तकनीकी रूप से शक्तिशाली विदेशियों के साथ संपर्क बनाते हुए अपनी संस्कृति की रक्षा और उसके प्रति रूचि जगाना था। इस अवधि में, फिरंगी महल के उलामा ने जो बाराबंकी जिले में सबसे पहले सेहाली में आधारित था, और 1690 के दशक से लखनऊ में आधारित था, मुसलमानों को निर्देशित और शिक्षित किया। फिरंगी महल ने भारत के मुसलमानों का नेतृत्व किया और आगे बढ़ाया। 5 WAHABI Movement वहाबी आंदोलन उन्नीसवी शताब्दी के चौथे दशक के सातवें दशक तक चला। इसने सुनियोजित रूप से ब्रिटिश प्रभुसत्ता को सबसे गम्भीर चुनौती दी। वैसे वहाबी आंदोलन कहने को तो धार्मिक आंदोनल था, लेकिन इस आंदोलन ने राजनीतिक स्वरुप ग्रहण कर लिया था और वह भारत से ब्रितानी शासन को उखा़डने की दिशा में अग्रसर हो चला था। वहाबी विद्रोह 1828 ई. से प्रारम्भ होकर 1888 ई. चलता रहा था। इतने लम्बे समय तक चलने वाले ‘वहाबी विद्रोह’ के प्रवर्तक रायबरेलीके ‘सैय्यद अहमद’ थे। सैयद अहमद ने वहाबी आंदोलन का नेतृत्व किया और अपनी सहायता के लिए चार खलीफे नियुक्त किए, ताकि देशव्यापी आंदोलन चलाया जा सके। उन्होंने इस आंदोलन का केन्द्र उतर पश्चिमी कबाइली प्रदेश में सिथाना बनाया। भारत में इसका मुख्य केन्द्र पटना और इसकी शाखाएँ हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, यू. पी. एवं बम्बई में स्थापित की गईं। इस आन्दोलन का मुख्य केन्द्र पटना शहर था। सैयद अहमदशाह के पश्चात् बिहार के मौलावी अहमदुल्ला इस संप्रदाय के नेता बने.. पटना के विलायत अली और इनायत अली इस आन्दोलन के प्रमुख नायक थे। सैय्यद अहमद पंजाब और बंगाल में अंग्रेज़ों को अपदस्थ कर भारतीय शक्ति को पुर्नस्थापित करने के पक्षधर थे। इन्होंने अपने अनुयायियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रशिक्षित कर स्वयं भी सैनिक वेशभूषा धारण की। उन्होंने पेशावर पर 1830 ई. में कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया तथा अपने नाम के सिक्के भी चलवाए। इस संगठन ने सम्पूर्ण भारत में अंग्रेज़ों के विरुद्ध भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया। 1857 में इस आन्दोलन का नेतृत्व पीर अली ने किया था, जिन्हें कमिश्नर टेलबू ने वर्तमान एलिफिन्सटन सिनेमा के सामने एक बडे पेड़ पर लटकवाकर फांसी दिलवा दी, ताकि जनता में दहशत फैले। इनके साथ ही ग़ुलाम अब्बास, जुम्मन, उंधु, हाजीमान, रमजान, पीर बख्श, वहीद अली, ग़ुलाम अली, मुहम्मद अख्तर, असगर अली, नन्दलाल एवं छोटू यादव को भी फांसी पर लटका दिया गया 1857 ई. के सिपाही विद्रोह में ‘वहाबी’ लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से विद्रोह में न शामिल होकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काने का प्रयास किया। मौलवी अहमदुल्ला के नेतुत्व में वहाबी आंदोलन ने स्पष्ट रूप से ब्रितानी विरोधी रुख धारण कर लिया। भारत में ब्रितानियों के विरुद्ध कोई सेना ख़डी नहीं की जा सकती थी, इस कारण मौलवी अहमदुल्ला ने मुजाहिदीनों की एक फौज सीमा पार इलाके के सिताना स्थान पर ख़डी की। उस सेना के लिए वे धन, जन तथा हथियार भारत से ही भेजते थे। 1860 ई. के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत इस विद्रोह को कुचलने में सफल रही। सन् 1865 में मौलवी अहमदुल्ला को बड़ी चालाकी के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाया गया। बहुत लालच देकर ही शासन उनके विरुद्ध गवाही देने वालों को तैयार कर सका। इस मुकदमे में सेशन अदालत ने तो मौलवी साहब को प्राणदंड की सजा सुनाई, लेकिन हाईकोर्ट मे अपील करने पर वह आजीवन कालेपानी की सजा में बदल गई। मौलवी साहब को कालेपानी की काल कोठरियों में डाल दिया गया। अगरचे मौलवी अहमदुल्ला कालेपानी की काल कोठरी में कैद थे, लेकिन वे वहाँ से भी भारत में चलने वाले वहाबी आंदोलन को निर्देशित करते रहे। वे सरहद पार के गाँव सिताना में मुजाहिदीनों की फौज को भी निर्देश करते थे.. उन्ही के इशारे पर 1971 मे बंगाल के चीफ जस्टिस पेस्टन नामॅन की हत्या अबदुल्ला नाम के एक शख़्स ने उस समय कर दी, जब वे सीढियों से नीचे उतर रहे थे। इतना ही नहीं, भारत के वाइसराय लॉर्ड मेयो जब सरकारी दौरे पर अंडमान गए तो मौलवी अहमदुल्ला की योजना के अनुसार ही 8 फरवरी, 1872 को एक पठान शेर अली अफरीदी ने लॉर्ड मेयो की उस समय हत्या कर दी, जब वे मोटर बोट पर चढ़ रहे थे। मौलवी अहमदुल्ला ने पूरे पच्चीस वर्ष तक ब्रितानियों के विरुद्ध संधर्ष का संचालन किया। ‘वाहाबी विद्रोह’ के बारे में यह कहा जाता है कि ‘यह 1857 ई. के विद्रोह की तुलना में कहीं अधिक नियोजित, संगठित और सुव्यवस्थित था’। बिहार कि राजधानी अज़ीमाबाद(पटना) के मुजाहिदे आज़ादी ‘अहमदुल्लाह’ से प्रेरित होकर पंजाब के मुजाहिदे आज़ादी ‘अबदुल्लाह’ ने कलकत्ता हाई कोर्ट के जज ‘JP नारमन’ का क़त्ल 1871 मे कर दिया , और ख़ैबर का एक पठान ‘शेर अली अफ़रीदी’ ने तो 8 फ़रवरी 1872 मे ‘र्लाड मायो’ को क़त्ल कर डाला जो उस वक़्त का ‘वाईसराय’ था और इनसे प्रेरित होकर बंगाल के 2 लाल ‘प्राफुल चाकी’ और ‘खुदिराम बोस’ 30 अप्रैल 1908 को मुज़फ़्फ़रपुर(बिहार) मे जज ‘किँगर्फोड’ को क़त्ल करने निकले पर ग़लत जगह हमला करने कि वजह कर जज बच गया और उसकी बेटी और पत्नी मारी गईं. खुदीराम बोस तो मुज़फ्फरपुर में पकडे गए पर प्रफुल्ला चाकी रेलगाड़ी से भाग कर मोकामा पहोंच गए. पर पुलिस ने पुरे मोकामा स्टेशन को घेर लिया था दोनों और से गोलियां चली पर जब आखिरी गोली बची तो प्रपुल्ला चाकी ने उसे चूमकर ख़ुद को मार लिया और शहीद हो गए , पुलिस ने उनके शव को अपने कब्जे लेकर उनके सर को काटकर कोलकत्ता भेज दिया ,वहां पर प्रफुल्ला चाकी के रूप में उनकी शिनाख्त हुई । ये बात उस वक़्त की है जब चंद्रशेखर आजाद सिर्फ 2 साल के थे. ‘प्रफुल्ल चाकी’ से ही प्रेरित हो कर ‘चंद्रशेखर आज़ाद’ ने ख़ुद को अंग्रेज़ो के हवाले ना करके 27 फ़रवरी 1931 को ख़ुद को गोली मार ली और शहीद हो गए पर अंग्रेज़ के हाथ नही आए.. इनलोगो ने अपने मुल्क = (हिन्दुस्तान + पाकिस्तान + बांग्लादेश) की आज़ादी के लिए खुद को क़ुर्बान कर दिया था.. नोट :- ” मौलवी अहमदुल्लाह” “इनीयत अली” “विलायत अली” वग़ैरा “उलमाए सादिक़पुरीया” से ताल्लुक़ रखते थे इनके मदरसे और बस्ती पर बिल्डोज़र चला दिया गया और बिल्कुल बराबर कर दिया गया , और सैंकड़ों की तादाद मे लोग काला पानी भेज दिए गए .. अंगरेज़ अपनी तरफ से पूरा बन्दोबस्त कर चुका था इसमे उस को कई साल लगे ॥ ‘वहाबी आंदोलन’ मेरी नज़र मे एक ऐसी तहरीक थी जिसने 1757 के बाद अंग्रेज़ को सबसे अधिक नुक़सान दिया था और ये नुक़सान उन्होने 1857 के 31 साल बाद तक अंग्रेज़ो देते रहे , जिसकी गवाही पटना कालेज की ईमारते देतीँ हैँ … मोहमदन ओरिएंटल कॉलेज पटना की इमारते देती हैं… गुलजारबाग म्युन्सिपल कारपोरेशन की इमारते देतीं हैं … पीर अली पार्क देता है … लार्ड़ मायो(वाईसराय) को क़त्ल करने वाली ‘शेर अली अफ़रीदी’ की ख़ंजर देती है , बंगाल के जज नारमन को क़त्ल करने वाले मोहम्मद अबदुल्लाह की बीज़ु देती है , बंगाल का फ़ेराज़ी आंदोलन देता है , मीर नासिर अली(तीतु मीर) और उनके 7 हज़ार साथीयोँ की क़ुरबानी देती है …. 6 khilafat movement खिलाफत आन्दोलन (1919-1924) भारत में मुख्यत: मुसलमानों द्वारा चलाया गया राजनीतिक-धार्मिक आन्दोलन था। इस आन्दोलन का उद्देश्य तुर्की में खलीफा के पद की पुन:स्थापना कराने के लिये अंग्रेजों पर दबाव बनाना था। खिलाफत के मुद्दे ने मौलिक राष्ट्रवादी रुझान के उदय की प्रक्रिया को, मुसलमानों की युवा पीढ़ी तथा उन मुस्लिम शोधार्थियों के मध्य सुलभ बना दिया, जिनमें धीरे-धीरे ब्रिटिश विरोधी भावनायें जागृत हो रही थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत तुर्की के प्रति अंग्रेजों के रवैये से भारतीय मुसलमान अत्यन्त उतेजित हो गये। न केवल भारतीय मुसलमान, अपितु सम्पूर्ण मुस्लिम जगत तुर्की के खलीफा को अपना धार्मिक प्रमुख मानता था, ऐसे में स्वाभाविक था कि मुसलमानों की सहानुभूति तुर्की के साथ थी। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने ब्रिटेन के विरुद्ध जर्मनी तथा आस्ट्रिया का साथ दिया था। अतः युद्ध की समाप्ति के उपरांत ब्रिटेन ने तुर्की के प्रति कठोर रवैया अपनाया। तुर्की को विभाजित कर दिया गया तथा खलीफा को पद से हटा दिया गया। ब्रिटेन के इस कदम से पूरे विश्व के मुसलमानों में रोष की लहर दौड़ गयी। भारत में भी मुसलमानों ने ब्रिटेन के इस कदम की तीव्र आलोचना की तथा अंग्रेजों के सम्मुख निम्न मांगे रखीं- मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर खलीफा के प्रभुत्व को पुर्नस्थापित किया जाये, खलीफा को, प्रदेशों की पुर्नव्यवस्था कर अधिक भू-क्षेत्र प्रदान किया जाये। 1919 के प्रारम्भ में अली बंधुओं- मोहम्मद अली तथा शौकत अली , मौलाना आजाद, अजमल खान तथा हसरत मोहानी के नेतृत्व में ‘खिलाफत कमेटी’ का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य तुर्की के प्रति ब्रिटेन के रवैये को बदलने के लिये ब्रिटेन पर दबाव डालना था। इस प्रकार देशव्यापी प्रदर्शन के लिये एक व्यापक पृष्ठभूमि तैयार हो गयी। असहयोग कार्यक्रम: कुछ समय तक खिलाफत के नेता, इस आंदोलन के पक्ष में सभाओं, धरनों एवं याचिकाओं तक ही सीमित रहे। किन्तु बाद में यह मांग जोर पकड़ने लगी कि अंग्रेजी शासन के विरोध में सशक्त प्रदर्शन किये जायें तथा अंग्रेजों के साथ हर प्रकार से असहयोग की अवधारणा का पालन किया जाये। इस प्रकार खिलाफत का रुख धीरे-धीरे परिवर्तित होने लगा। नवम्बर 1919 में खिलाफत का अखिल भारतीय सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार की मांग की गयी। साथ ही खिलाफत के नेताओं ने यह भी स्पष्ट शब्दों में कहा कि युद्धोपरांत संधि की शर्ते, जब तक तुर्की के अनुकूल नहीं बनायी जायेंगी तब तक वे सरकार के साथ किसी प्रकार का सहयोग नहीं करेंगे। गांधीजी ने, जो कि अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी के अध्यक्ष थे, इस मुद्दे को भारतीयों में एकता स्थापित करने तथा सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन घोषित करने के एक उपयुक्त मंच के रूप में देखा। जून 1920- में केंद्रीय खिलाफत समिति का अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ। इस अधिवेशन में स्कूलों, कालेजों तथा न्यायालयों का बहिष्कार करने का निर्णय लिया गया तथा गाँधीजि को आन्दोलन का नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा गया। 7 silk letter movement (Reshmi Rumal) आजादी के आंदोलन में विश्वप्रसिद्ध इस्लामिक शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद का योगदान भी कम नहीं रहा। यहां से शुरू हुआ ‘तहरीक-ए-रेशमी रुमाल’ ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। इसके तहत रुमाल पर गुप्त संदेश लिखकर इधर से उधर भेजे जाते थे, जिससे अंग्रेजी फौज को आंदोलन के तहत की जाने वाली गतिविधियों की खबर नहीं लग सके। तहरीक रेशमी रुमाल शुरू कर जंग-ए-आजादी में अहम भूमिका निभाने वाले मौलाना महमूद हसन देवबंदी शेखुल हिंद का जन्म सन 1851 में दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक सदस्य मौलाना जुल्फिकार अली देवबंदी के यहां रायबरेली में हुआ था। शेखुल हिंद ने इब्तिदाई तालीम अपने चाचा मौलाना महताब अली से हासिल की। 6 मई सन् 1866 को दारुल उलूम देवबंद की स्थापना के समय शेखुल हिंद दारुल उलूम देवबंद के पहले छात्र बने। उन्होंने शेखुल हिंद ने इल्मे हदीस दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक हजरत मौलाना कासिम नानोतवी से प्राप्त की। 1874 में दारुल उलूम देवबंद के उस्ताद के पद पर चयन हुआ और दारुल उलूम के सदरुल मदर्रिसीन बनाए गए। दारुल उलूम देवबंद के मोहतमित अबुल कासिम नौमानी बताते हैं कि देश की आजादी में दारुल देवबंद का अहम रोल रहा है। उन्होंने बताया कि देश को अंग्रेजों के चंगुल व देशवासियों को अंग्रेजों के जुल्मों सितम से बचाने का दर्द दिल में लेकर 1901 में शेखुल हिंद अपने साथियों के साथ मिलकर कोशिश करने लगे। उन्होंने देश ही नहीं, बल्कि विदेशों तक अपना नेटवर्क स्थापित कर लिया। Deoband Ulema’s movement दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रेजों ने अपनी संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे। चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुक़ाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से उपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबन्द के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीये मौलाना महमूद हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारुल उलूम देवबन्द) उन सैनानियों में से एक थे जिनके क़लम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शैखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभूषित किया गया था, उन्हों ने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, तुर्की, सऊदी अरब व मिश्र) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भत्र्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेज़ी शासक वर्ग की मुख़ालफत की। बल्कि शेखुल हिन्द ने अफ़ग़ानिस्तान व इरान की हकूमतों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में सहयोग देने के लिए तैयार करने में एक विशेष भूमिका निभाई। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान व इरान को इस बात पर राज़ी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध लड़ने पर तैयार हो तो ज़मीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे। शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के मध्यम से अंग्रेज़ के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाआंे पर चलते रहे और अपने देशप्रेमी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों व आंदोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं। सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अफ़गानिस्तान जाकर अंग्रेज़ों के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की स्र्वप्रथम स्वंतत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना गया। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक शाख क़ायम की जो बाद में (1922 ई. में) मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज़ (सऊदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होने वहां रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्क बना कर सैनिक सहायता की मांग की। सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द इस्तमबूल जाना चहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब पाशा तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज़ पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भातियों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला ”तहरीक ए रेशमी रूमाल“ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि “ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी“। सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज़ से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गयी। सन 1920 में इन महान सैनानियों की रिहाई हुई। शेखुल हिन्द की अंग्रेजों के विरूद्ध तहरीके-रेशमी रूमाल, मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजै़रगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का मालटा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने अपनी मात्र भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्ल्यू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सीआई़डी राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट नं. 122 में लिखा था जो आज भी इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ”मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज़ चले गये थे, रेशमी ख़तूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं। गुलाम रसूल मेहर ने अपनी पुस्तक ”सरगुज़स्त ए मुजाहिदीन“ (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552 पर लिखा है कि ”मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हज़रत शेखुल हिन्द अपनी जि़न्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का ख़ाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी“। उड़ीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली, दीनापुर, अमरोत, कराची, खेडा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत ”यागि़स्तान“ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था। इसी प्रकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दारुल उलूम देवबन्द स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भी देश प्रेम का पाठ पढ़ता रहा है जैसे सन 1947 ई. में भारत को आज़ादी तो मिली, परन्तु साथ-साथ नफरतें आबादियों का स्थानांतरण व बंटवारा जैसे कटु अनुभव का समय भी आया, परन्तु दारुल उलूम की विचारधारा टस से मस न हुई। इसने डट कर इन सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया तथा अपने देशप्रेम व धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण दिया। आज भी दारुल उलूम अपने देशप्रेम की विचार धारा के लिए संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है। 8 Ghadar Movement गदर शब्द का अर्थ है – विद्रोह। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में क्रान्ति लाना था। जिसके लिए अंग्रेज़ी नियंत्रण से भारत को स्वतंत्र करना आवश्यक था। गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया। भोपाल के बरकतुल्लाह ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे जिसने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था| ग़दर पार्टी के सैयद शाह रहमत ने फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम किया और 1915 में असफल गदर (विद्रोह) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें फांसी की सजा दी गई| फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) के अली अहमद सिद्दीकी ने जौनपुर के सैयद मुज़तबा हुसैन के साथ मलाया और बर्मा में भारतीय विद्रोह की योजना बनाई और 1917 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था; 9 khudai khidmatgar movement लाल कुर्ती आन्दोलन भारत में पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ानद्वाराभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन में खुदाई ख़िदमतगार के नाम से चलाया गया एक ऐतिहासिक आन्दोलन था। खुदाई खिदमतगार एक फारसी शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ होता है ईश्वर की बनायी हुई दुनिया के सेवक। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी। उसके बाद उन्हें यातनाओं की झेलने की आदत सी पड़ गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘ख़ुदाई ख़िदमतग़ार’ नामक संस्था की स्थापना की और अपने आन्दोलनों को और भी तेज़ कर दिया। 1937 में नये भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत कराये गए चुनावों में लाल कुर्ती वालों के समर्थन से काँग्रेस पार्टी को बहुमत मिला और उसने गफ्फार खान के भाई खान साहब के नेतृत्व में मन्त्रिमण्डल बनाया जो बीच का थोड़ा अन्तराल छोड़कर 1947 में भारत विभाजन तक काम करता रहा। इसी वर्ष सीमान्त प्रान्त को भारत और पाकिस्तान में से एक में विलय का चुनाव करना पड़ा। उसने जनमत संग्रह के माध्यम से पाकिस्तान में विलय का विकल्प चुना। खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी के रूप में प्रसिद्ध) एक महान राष्ट्रवादी थे जिन्होंने अपने 95 वर्ष के जीवन में से 45 वर्ष केवल जेल में बिताया; 10 Aligarh Movement सर सैय्यद अहमद खां ने अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन का नेतृत्व किया। उनका जन्म 1816 ई. में दिल्ली में एक उच्च मुस्लिम घराने में हुआ था। 20 वर्ष की आयु में ही वे सरकारी सेवा में आ गये थे। वे अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक काल में राजभक्त होने के साथ-साथ कट्टर राष्ट्रवादी थे। वे नौकरशाही की कठोर आलोचना करने से नहीं डरते थे और भारतीयों के प्रति ब्रिटिश अधिकारियों के दुर्व्यवहार की कटु निन्दा करते थे। उन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया। 1884 ई. में पंजाब भ्रमण के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए सर सैय्यद अहमद खाँ ने कहा था कि, हमें (हिन्दू और मुसलमानों को) एक मन एक प्राण हो जाना चाहिए और मिल – झुलकर कार्य करना चाहिए। यदि हम संयुक्त है, तो एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक सहायक हो सकते हैं। यदि नहीं तो एक का दूसरे के विरूद्ध प्रभाव दोनों का ही पूर्णतः पतन और विनाश कर देगा। इसी प्रकार के विचार उन्होंने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में भाषण देते समय व्यक्त किये। एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि, हिन्दू एवं मुसल्मान शब्द को केवल धार्मिक विभेद को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों ही एक ही राष्ट्र हिन्दुस्तान के निवासी हैं। सर सैय्यद अहमद ख़ाँ द्वारा संचालित ‘अलीगढ़ आन्दोलन’ में उनके अतिरिक्त इस आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता थे- नजीर अहमद चिराग अली अल्ताफ हुसैन मौलाना शिबली नोमानी 11 Swadeshi Movement स्वदेशी आन्दोलन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन था। स्वदेशी का अर्थ है – ‘अपने देश का’। इस रणनीति के लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था। वर्ष 1905 के बंग-भंग विरोधी जनजागरण से स्वदेशी आन्दोलन को बहुत बल मिला। यह 1911 तक चला और गान्धीजी के भारत में पदार्पण के पूर्व सभी सफल अन्दोलनों में से एक था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद , अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आन्दोलन के मुख्य उद्घोषक थे।आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया। उन्होने इसे “स्वराज की आत्मा” कहा। इस आंदोलन का प्रचार सैय्यद हैदर रज़ा ने दिल्ली में किया। 12 Home Rule Movement प्रथम विश्वयुद्ध की आरम्भ होने पर भारतीय राष्ट्रीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरमपंथियों ने ब्रिटेन की सहायता करने का निश्चय किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस निर्णय के पीछे संभवतः ये कारण था कि यदि भारत ब्रिटेन की सहायता करेगा तो युद्ध के पश्चात ब्रिटेन भारत को स्वतंत्र कर देगा। परन्तु शीघ्र ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को ये अनुमान हो गया कि ब्रिटेन ऐसा कदापि नहीं करेगा और इसलिए भारतीय नेता असंतुष्ट होकर कोई दूसरा मार्ग खोजने लगे। यही असंतुष्टता ही होम रूल आन्दोलन के जन्म का कारण बनी। 1915 ई. से 1916 ई. के मध्य दो होम रूल लीगों की स्थापना हुई। ‘पुणे होम रूल लीग’ की स्थापना बाल गंगाधर तिलक ने और ‘मद्रास होम रूल लीग’ की स्थापना एनी बेसेंट ने की। होम रूल लीग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सहायक संस्था की भांति कार्यरत हो गयी। इस आन्दोलन का उद्देश्य स्व-राज्य की प्राप्ति था परन्तु इस आन्दोलन में शस्त्रों के प्रयोग की अनुमति नहीं थी। इस आंदोलन में मुसलमानो का अहम किरदार रहा है .. 13 Non – Cooperation Movement 1919 से 1922 के मध्य अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध दो सशक्त जनआंदोलन चलाये गये। ये आांदोलन थे- खिलाफत एवं असहयोग आंदोलन हालांकि ये दोनों आन्दोलन पृथक-पृथक मुद्दों को लेकर प्रारम्भ हुये थे किन्तु दोनों ने ही संघर्ष के एक ही तरीके राजनीति से प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध नहीं था। किन्तु इसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को प्रोत्साहित करने में प्रमुख भूमिका निभायी। पृष्ठभूमिः इन दोनों आंदोलनों की पृष्ठभूमि उन घटनाओं की श्रृंखला में निहित है, जो प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् अंग्रेजी शासन द्वारा भारतीय संदर्भ में उठाये गये कदमों के कारण घटित हुई थीं। इन आंदोलनों के लिये 1919 का वर्ष सबसे महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि इस विशेष वर्ष में सरकारी नीतियों एवं गतिविधियों से भारतीय समाज का लगभग हर वर्ग असंतुष्ट और रुष्ट हो गया। इस सार्वजनिक असंतुष्टि के लिये कई कारण उत्तरदायी थे, जिनका वर्णन निम्नानुसार है- 1 प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् उत्पन्न हुई आर्थिक कठिनाइयों से जनता त्रस्त हो गयी। विश्वयुद्ध के कारण मंहगाई बहुत बढ़ गयी। कस्बों और नगरों में रहने वाले मध्यम एवं निम्न मध्यवर्ग के लोग दस्तकार, मजदूर सभी मंहगाई से परेशान हो गये। खाद्यानों की भारी कमी हो गयी। मुद्रास्फीति बढ़ने लगी, औद्योगिक उत्पादन कम हो गया तथा लोग करों के बोझ से दब गये। समाज का लगभग हर वर्ग आर्थिक परेशानियों से जूझने लगा। इससे लोगों में ब्रिटिश विरोधी भावनायें जागृत हुई। सूखे, महामारी और प्लेग से भी हजारों लोग मारे गये। 2 रौलेट एक्ट, पंजाब में मार्शल लॉ का आरोपण तथा जलियांवाला बाग हत्याकांड जैसी घटनाओं ने विदेशी शासकों के क्रूर एवं असभ्य रवैये को उजागर कर दिया। 3 पंजाब में ज्यादतियों के संबंध में हंटर कमीशन की सिफारिशों ने सबकी आंखें खोल दीं। उधर ब्रिटिश संसद विशेषकर ‘हाउस आफ लार्डस’ में जनरल डायर के कृत्यों को उचित ठहराया गया तथा ‘मार्निग पोस्ट’ ने डायर के लिये 30 हजार पाउंड की धनराशि एकत्रित की। ये सारी गतिविधियां अंग्रेजी शासन का पर्दाफाश करने के लिये पर्याप्त थीं। 4 1919 के माटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का वास्तविक मकसद भी द्वैध शासन प्रणाली लागू करना था न कि जनता को राहत पहुंचाना। इन सुधारों से स्वशासन की मांग कर रहे राष्ट्रवादियों को अत्यन्त निराशा हुई। विश्वयुद्ध के पश्चात् हुई कई अन्य घटनाओं ने भी हिन्दू-मुस्लिम राजनीतिक एकीकरण के लिये एक व्यापक पृष्ठभूमि तैयार की- 1 लखनऊ समझौता (1916)- इससे कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में सहयोग बढ़ा। 2 रौलेट एक्ट के विरुद्ध प्रदर्शन में समाज के अन्य वर्गों के साथ ही हिन्दू तथा मुसलमान भी एक-दूसरे के करीब आ गये। 3 मौलिक राष्ट्रवादी मुसलमान जैसे- मौलाना अबुल कलाम आजाद,मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी, हकीम अजमल खान, हसरत मोहनी डा। सैयद महमूद, हुसैन अहमद मदनी, प्रोफेसर मौलवी बरकतुल्लाह, डॉ॰ जाकिर हुसैन, सैफुद्दीन किचलू, वक्कोम अब्दुल खदिर, डॉ॰ मंजूर अब्दुल वहाब, बहादुर शाह जफर, हकीम नुसरत हुसैन, खान अब्दुल गफ्फार खान, अब्दुल समद खान अचकजई, शाहनवाज कर्नल डॉ॰ एम॰ ए॰ अन्सरी, रफी अहमद किदवई, फखरुद्दीन अली अहमद, अंसार हर्वानी, तक शेरवानी, नवाब विक़रुल मुल्क, नवाब मोह्सिनुल मुल्क, मुस्त्सफा हुसैन, वीएम उबैदुल्लाह, एसआर रहीम, बदरुद्दीन तैयबजी , हसन इमाम और मौलवी अब्दुल हमीद जैसे राष्ट्रवादियों ने भी राष्ट्रवाद की वकालत की तथा राष्ट्रवादी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने पर बल दिया। वे साम्राज्य विरोधी भावनाओं से गहरे प्रभावित थे तथा साम्राज्यवादी दासता को समाप्त करना चाहते थे। इन्हीं सब गतिविधियों के परिदृश्य में खिलाफत एवं असहयोग आंदोलन का जन्म हुआ जिसके साथ ही ऐतिहासिक असहयोग आंदोलन, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के पटल पर उभरा। शाहजहाँपुर उत्तर प्रदेश के अशफाक उल्ला खाँ वारसी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। उन्होंने काकोरी काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ब्रिटिश शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और 19 दिसम्बर सन् 1927 को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया गया। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सम्पूर्ण इतिहास में ‘बिस्मिल’ और ‘अशफाक’ की भूमिका निर्विवाद रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता का अनुपम आख्यान है। 14 Malabar rebellion केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा 1920 में ब्रितानियों के विरुद्ध किया गया विद्रोह मोपला विद्रोह कहलाता है। यह विद्रोह मालाबार के एरनद और वल्लुवानद तालुका में खिलाफत आन्दोलन के विरुद्ध अंग्रेजों द्वारा की गयी दमनात्मक कार्यवाही के विरुद्ध आरम्भ हुआ था। केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपलाओं द्वारा 1920 ई. में विद्राह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ॅ था। महात्मा गाँधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आन्दोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में ‘अली मुसलियार’ चर्चित थे। 15 फ़रवरी, 1921 ई. को सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर ख़िलाफ़त तथा कांग्रेस के नेता याकूब हसन, यू. गोपाल मेनन, पी. मोइद्दीन कोया और के. माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद यह आन्दोलन स्थानीय मोपला नेताओं के हाथ में चला गया। 1920 ई. में इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुसलमानों के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया, परन्तु शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया। इतिहास में साम्प्रदायिक लोग भरे हुए हैं इसलिए वहां के जमींदार हिन्दू ब्राह्मण थे अवाम मुसलमान थी इसलिए इसे हिन्दू-मुस्लिम के बीच की लड़ाई बना दिया गया है जब के ये विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ॅ था। 15 Ahrar Movement इस आंदोलन की स्थापना स्वतंत्रता सेनानी रईस उल अहरार मौलाना हबीब उर रहमान लुधियानवी, सैय्यद उल अहरार, सैय्यद अताउगाह शाह बुखारी, चौधरी अफजल हक ने 29 दिसंबर 1929 ई0 को लाहौर के हबीब हाल में की थी। अहरार पार्टी की स्थापना इसलिए की गई थी कि हम देश में उस समय मौजूद जालिम अंग्रेज सरकार को देश से उखाड़ फैंकें और अहरार पार्टी के कार्यकत्र्ताओं ने अपने इस फर्ज को अच्छी तरह निभाया। एक-दो नहीं बल्कि हजारों अहरारी कार्यकत्र्ताओं ने स्वतंत्रता संग्राम में जेलें काटीं हैं। अल्लामा इक़बाल {रह.} ने जंग-ए-आज़ादी के अज़ीम मोजाहिद और मजलिस-ए-अहरार इस्लाम के फाउंडर सय्यद अता उल्लाह शाह बुखारी {रह.} के बारे मे फरमाया करते थे की “सय्यद अताउल्लाह शाह बुखारी इस्लाम की चलती फिरती तलवार है” 16 The Khaksar movement खाकसार पर्शियन भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है जिसमें खाक – का मतलब है मिट्टी और सार का मतलब है जीवन और इसका संयुक्त मतलब निकलता है विनम्र इंसान। हालांकि ये आंदोलन हथियारबद्ध था। ये पूरा आंदोलन उस समय चलाया गया था जब ब्रिटिश काल में भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी। इस आंदोलन के जनक थेअल्लामा इनायतुल्लाह खान मशरक़ी जो एक महान राष्ट्रवादी थे । भारतीय आजादी के इतिहास पर जब हम गहराई से नजर डालते हैं तो पता चला है कि ये आंदोलन तब खड़ा हुआ था जब 5 मार्च 1931 को गांधी ने अंग्रेजी हुकूमत के साथ गोल मेज सम्मेलन में हिस्सा लिया और गांधी-इरविन पैक्ट के तहत उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया था। इसके बाद भारतीय समाज का लगभग हर वर्ग गहन निराशा और दबाव से गुजर रहा था। इसी के चलते लाहौर के कुछ नवयुवकों ने अंग्रेजों के विरूद्ध हथियार उठा लिए जिनकी संख्या शुरू में 90 थी जो देखते ही देखते कुछ ही दिनों में 300 लोगों का एक संगठन बन गया था। जिन्हें अंग्रेजों ने उग्रवादी करार दिया था। बताया यह भी जाता है कि ये सारे वो नौजवान थे जो ब्रिटिश प्रशासन में ही भारतीय सैनिक थे। 17 Provisional Government of Free India (Azad Hind) सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अफ़गानिस्तान जाकर अंग्रेज़ों के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की स्र्वप्रथम स्वंतत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज सबसे पहले राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने 29 अक्टूबर 1915 को अफगानिस्तान में बनायी थी। मूलत: यह ‘आजाद हिन्द सरकार’ की सेना थी जो अंग्रेजों से लड़कर भारत को मुक्त कराने के लक्ष्य से ही बनायी गयी थी। किन्तु इस लेख में जिसे ‘आजाद हिन्द फौज’ कहा गया है उससे इस सेना का कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ, नाम और उद्देश्य दोनों के ही समान थे। रासबिहारी बोस ने जापानियों के प्रभाव और सहायता से दक्षिण-पूर्वी एशिया से जापान द्वारा एकत्रित क़रीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू किया था और उसे भी यही नाम दिया अर्थात् आज़ाद हिन्द फ़ौज। बाद में उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को आज़ाद हिन्द फौज़ का सर्वोच्च कमाण्डर नियुक्त करके उनके हाथों में इसकी कमान सौंप दी। इस फ़ौज में मुसलमानो की बड़ी तादाद थी , जिसमे कुछ नाम आबिद हसन , अमीर हमज़ा ,शाहनवाज़ खान , अब्बास अली , निज़ामुद्दीन खान ई हैं . 18 Muslim Nationalist Party ऑल इंडिया मुस्लिम नेशनलिस्ट पार्टी एक राष्ट्रवादी पार्टी थी जिसे मौलाना आज़ाद , डॉक्टर मुख़्तार अंसारी , महोम्मेदाली करीम चागला , अवसाफ अली और शेरवानी वगैरह ने मिलकर बनाया था ! इस पार्टी ने मुस्लिम लीग का खुल केर मुखालफत पर इसे स्वंत्रता संग्राम के दौरान अनदेखा किया गया और हाशिए में धकेल दिया गया। Peasant Movement Civil Disobedience Movement Simon Commission साइमन गो बैक का नर भी एक मुस्लिम क्रन्तिकारी युसूफ मैहर अली ने दिया था. साइमन आयोग सात ब्रिटिश सांसदो का समूह था, जिसका गठन 1927 मे भारत मे संविधान सुधारों के अध्ययन के लिये किया गया था। इसे साइमन आयोग (कमीशन) इसके अध्यक्ष सर जोन साइमन के नाम पर कहा जाता है। साइमन कमीशन की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि- (1) प्रांतीय क्षेत्र में विधि तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाए। (2) केन्द्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का अभी समय नहीं आया। (3) केंद्रीय विधान मण्डल को पुनर्गठित किया जाय जिसमें एक इकाई की भावना को छोड़कर संघीय भावना का पालन किया जाय। साथ ही इसके सदस्य परोक्ष पद्धति से प्रांतीय विधान मण्डलों द्वारा चुने जाएं। कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज (केवल अम्बेडकर को छोड़कर) थे जो भारतीयों का बहुत बड़ा अपमान था। चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आन्दोलन वापस लिए जाने के बाद आजा़दी की लड़ाई में जो ठहराव आ गया था वह अब साइमन कमीशन के गठन की घोषणा से टूट गया। 1927 में मद्रास में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें सर्वसम्मति से साइमन कमीशन के बहिष्कार का फैसला लिया गया। मुस्लिम लीग ने भी साइमन के बहिष्कार का फैसला किया। तीन फरवरी 1928 को कमीशन भारत पहुंचा। साइमन कोलकाता लाहौर लखनऊ,विजयवाड़ा और पुणे सहित जहाँ जहाँ भी पहुंचा उसे जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा और लोगों ने उसे काले झंडे दिखाए। पूरे देश में साइमन गो बैक (साइमन वापस जाओ) के नारे गूंजने लगे! All India Muslim League 1930 के दशक तक, मुहम्मद अली जिन्ना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे और स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा थे। कवि और दार्शनिक, डॉ॰ सर अल्लामा मुहम्मद इकबाल हिंदू – मुस्लिम एकता और 1920 के दशक तक अविभाजित भारत के एक मजबूत प्रस्तावक थे.अपने प्रारम्भिक राजनीतिक कैरियर के दौरान हुसेन शहीद सुहरावर्दी भी बंगाल में राष्ट्रीय कांग्रेस में सक्रिय थे। मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली ने समग्र भारतीय संदर्भ में मुसलमानों के लिए मुक्ति के लिए संघर्ष, और महात्मा गांधी और फिरंगी महल मौलाना अब्दुल के साथ स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 1930 के दशक तक भारत के मुसलमानों ने मोटे तौर पर एक अविभाजित भारत के समग्र संदर्भ में अपने देशवासियों के साथ राजनीति की. Dandi March Quit India Movement Quit India का नारा भी एक मुस्लिम क्रन्तिकारी युसूफ मैहर अली ने दिया था. भारत छोड़ो आन्दोलन विश्वविख्यात काकोरी काण्ड के ठीक सत्रह साल बाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ९ अगस्त सन १९४२ को गांधीजी के आह्वान पर समूचे देश में एक साथ आरम्भ हुआ। यह भारत को तुरन्त आजाद करने के लिये अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। क्रिप्िफ़लता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया। 8 अगस्त 1942 की शाम को बम्बई में अखिल भारतीय काँगेस कमेटी के बम्बई सत्र में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नाम दिया गया था। हालांकि गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधि गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में स्वतंत्र सरकार, प्रतिसरकार की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया।केरल के अब्दुल वक्कोम खदिर ने 1942 के ‘भारत छोड़ो’ में भाग लिया और 1942 में उन्हें फांसी की सजा दी गई थी, उमर सुभानी जो की बंबई की एक उद्योगपति करोड़पति थे, उन्होंने गांधी और कांग्रेस व्यय प्रदान किया था और अंततः स्वतंत्रता आंदोलन में अपने को कुर्बान कर दिया। मुसलमान महिलाओं में हजरत महल, अस्घरी बेगम, बाई अम्मा ने ब्रिटिश के खिलाफ स्वतंत्रता के संघर्ष में योगदान दिया है. अफ़सोस आज हमें उन लोगों की कुर्बानी बिलकुल भी याद नहीं रही

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