Wednesday 18 November 2015

हर बार ये  इल्ज़ाम रह गया..!
हर काम में कोई  काम रह गया..!!

खून किसी का भी गिरे यहां
नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर
बच्चे सरहद पार के ही सही
किसी की छाती का सुकून है आखिर

ख़ून के नापाक ये धब्बे, ख़ुदा से कैसे छिपाओगे ?
मासूमों के क़ब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे ?

कागज़ पर रख कर रोटियाँ, खाऊँ भी तो कैसे . . . . खून से लथपथ आता है, अखबार भी आजकल .

दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है
दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है ....!
तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो..
हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!!

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