Sunday, 27 August 2017

बनकर या बिखरकर जीना तो है ही...... एक रोशनी सी आती है मुजमे जब आंखे बंद कर लेती हूं,एक आभा सी ,उन्मुक्त मुझ जैसी ही कोई मुजमे रहती है आसमान को ताकती और जमीन को नापती आंखे मेरी,,तमाम लोगों को दरकिनार कर खुद में ही जी लेना सिखाती है,कुछ निशब्द सी जिंदगी ,कुछ निशब्द शब्द तलाशती भावनाये मेरी,लगता है जिंदगी को भी तलाश जिन्दगी की है। ओफ्फो ।।।ये अतिशय जीने की आदतें ,ये रोशनदानों सी दुनिया औऱ,नंगे पॉव कही दूर जाने की इच्छाएं ,मेरी भी आदत है लिख ही देना इनकी बारीकियां, जो परेशान करती है जैसे किसी सुने कमरे में भंवरे की आवाज़ें ,लिख लेने से चीज़े क्लियर हो जाती है। परिंदा सा दिल ,रोज़ नई उड़ान भरता है,शाम होते ही जैसे हिसाब लगाने लगता है जैसे नई गाड़ी का ड्राइवर बार बार किलोमीटर चेक करता है न ठीक वैसे, आदत सी हो गयी है ,सच जानने से पहले अनुमान लगाने की,कुछ तो यू ही आप धापी में जीकर कबआये कब गए हो जाते है ,फिर भी जीना तो है बनकर या बिखरकर, दुनिया जितने सवाल नही पूछती ,उतने से ज्यादा हम खुद वकील की तरह सवाल करते है खुद से,खुद से लड़ने की नाकामयाब कोशिश और फिर डेरा दोस्तो का,हर व्यक्ति की अपनी अपनी गांठे होती है और अपने अपने उलझाव , खुद से खुद की बातचीत और हो गया कुछ विचारो का अंतिम संस्कार।। , ये महफिले भी तारीख दर तारीख जम ही जाती है ,कुछ लोग दर्द धुंआ करते कुछ दर्द हवा करते है , जी लेते है लोग फिर भी बनकर या बिखरकर , कभी बोजिल कभी हो जाती झिलमिल आंखे कभी कभी इन कनखियों से झांकती बिस्मिल आंखे। ,सफर सुहाना कहो या सुना सुना,चलना तो है ही, बनकर या बिखरकर ,फिर भी जीना है हँसकर,इस सफर को सुहाना कहो या सुना सुना ।। जी भी लेना दोस्तो जैसे भी जीना चाहो, जिंदगी तो ऐसे ही सताएगी बच्चे की तरह,जीना तो पड़ेगा ही बनकर या बिखरकर यशोदा सोलंकी

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