छत नहीं दिवार नहीं ना कोई मकान है,
बिछाने को धरा औढने को आसमान है।
फटे हुए कपडो से अंग-अंग झांकते,
आबरू वो अपनी हथेलियों से ढांकते।
मरते हुए मजबुर गरीबों को छोड़ कर,
चले जाते कार के सवार मुख मोड कर।
आदमी को दया नही आदमी की जात पर,
भुख से तड़प रहे बच्चे फुटपाथ पर।
यातायात भिड भाड सडकों को लांघते,
हाथ में कटोरा लिए बच्चे भीख मांगते।
बिमारी में उनको इलाज नहीं मिलता,
मुट्ठी भर खाने को अनाज नहीं मिलता।
कैसी सत्ता कैसा संविधान मेरे देश का,
गोदामों में सड गया धान मेरे देश का।
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